गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

नव वर्ष की हार्दिक शुभ कामनाएं ..............

आप सभी ब्लागर को नव वर्ष की हार्दिक शुभ कामनाएं .............
ये वर्ष आप सभी के जीवन में नई ऊंचाइयां स्थापित करे इन्ही शुभकामनाओं के साथ नव वर्ष की नयी गज़ल
उम्मीद है आप सभी को पसंद आयेगी - " पुष्पेन्द्र सिंह "


बचपन से जो ख्वाब संजोया वो पूरा कब होगा !
अपने अपने घर में सब का रैन बसेरा कब होगा !!

खेतों में लहलहाती फसलें आँखों में हो उम्मीदें !
हर बच्चे के हाथ किताबें ऐसा मंजर कब होगा !!

रात और दिन बस एक ही मसला रोटी का !
कोई न भूखा सोने पाए ऐसा शुभ दिन कब होगा !!

नारी को भी पुरुषों सा समता का अधिकार मिले !
सब का दर्द अपना सा लगे ऐसा आलम कब होगा !!

घर -घर में है शीत युद्ध और मतभेदों की दीवारें !
चहुँदिश से बस प्यार ही बरसे ऐसा मौसम कब होगा !!

मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

अपना क्या है.......

वस्ल का हिज्र से मुकाबला क्या है |
जिंदगी जीने का फलसफा क्या है ||

अक्सर पूंछता हूँ इन परिंदों से |
झगडती शरहदों का मसला क्या है ||

नब्ज़ है दबी सी दिल हैरान सा |
बेतरतीब इश्क़ का माज़रा क्या है ||

जिंदगी मैने तुझे देखा करीब से |
इस भरे जहाँ में अपना क्या है ||

तू रुकेगा या वक़्त के साथ जायेगा |
बता तेरा आखिरी फैसला क्या है ||

शनिवार, 26 दिसंबर 2009

आखिर ये मयखाने कब तक

इधर उधर की बातें कब तक|
आँखों से मुलाकाते कबतक ||

चुनलो कोई साथी तुम भी |
गैरों के अफसाने कब तक ||

उनसे बिछडे अरसा गुजरा |
आँखों के पैमाने कब तक ||

ढू ढो कोई जगह दूसरी |
आखिर ये मयखाने कब तक ||

कल की छोड़ो आज संभालो |
गुजरे हुए ज़माने कब तक ||

एक ही मालिक के सब बन्दे |
मजहब जाति घराने कब तक ||

मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

तीर ए तरकश

तीर ए तरकश चोली दामन भूल गए |
सांसों को दिल तक लाना भूल गए ||

माना कोई गुनाह नहीं किया तुमने |
क्यों नजरो से नज़र मिलाना भूल गए ||

रंजो गम की श्याही से लिखते लिखते |
चैनो अमन का पेन चलाना भूल गए ||

रिश्तों की फैली चादर एसी सिमटी |
आना जाना हाथ मिलाना भूल गए ||

जहाँ कभी भुट्टे की चौपालें थी |
गांव का अपने नीम पुराना भूल गए ||

लाख किताबें पढली होंगी तुमने लेकिन |
बचपन का वो क ख ग घ भूल गए ||

ज्ञान बाँटना फितरत इस दुनियां की |
अपने आपको हम समझाना भूल गए ||

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

नज़र नज़र से नज़र नहीं आती |
बात आँखों से कही नहीं जाती ||

यही फैसला है भरी पंचायत का |
हर गुनाह की सजा दी नहीं जाती ||

छलकते थे कभी पैमाने जिन आँखों से |
अब एक बूंद नज़र नहीं आती ||

यही बावस्तगी है तो हिज्र ही अच्छा |
तेरे जाने से तेरी याद जो नहीं आती ||

ज़ख्म अपने है तो नुमाइश कैसी |
घर की बात बहार की नहीं जाती ||

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

वर्गे-गुल से लव खिलने दे |
आँखों से ऑंखें मिलने दे ||
हो जाएँगी बातें भी दो |
पहले दिल से दिल मिलने दे ||
सहरा भी शर-शब्ज़ बनेगा |
आस का कोई गुल खिलने दे ||
ज़ख्म पुराना भर जायेगा |
यादों की आंधी थमने दे ||
श्याम रंग कैसे है बनता |
अश्कों से काज़ल मिलने दे ||

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

बन के ख्वाब दिलों को  जलाना नहीं अच्छा |
लगा के दिल फिर हाथ  छुड़ाना नहीं अच्छा ||

अफ़सोस कि इस बात को समझा नहीं इन्सान |
गर उठा नहीं सकते तो गिराना नहीं अच्छा ||

खतों के सिलसिलों में बात ये भी रही शामिल |
सफ़र में थकने का ए दोस्त बहाना नहीं अच्छा ||

तू  अपने  गिरेवान को  झांक कर तो देख  |
किस बात पर कहते हो  जमाना नहीं अच्छा  ||

मुद्दत से प्यासा हूँ  मगर सहरा में रहने दो |
बना कर  अश्क आँखों से बहाना नहीं अच्छा ||

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