बुधवार, 18 नवंबर 2009

दर्द

दर्द कुछ इस कदर बढ़ने लगा है |
आब आँखों से जा मिलाने लगा है ||

चलेंगे साथ ये बंदिश नहीं थी |
हमसफ़र अल्फाज़ ये कहने लगा है ||

कहीं पत्थर कहीं फूल था शायद |
खार सीने मे जा चुभने लगा है ||

कोई बच्चा कही रोया है अभी |
दर्द पत्थर को भी होने लगा है ||

तुम भी इकलाख से तोबा करलो
खून इंसानियत का बहने लगा है

शनिवार, 14 नवंबर 2009

वाह वाह

आज फिर कुछ लिखने की इच्छा हुई यूँ तो लिखने की इच्छा हमेशा ही रहती है और लिखता भी रहता हूँ
पर कुछ हकीकत लिखने का दिल था तो आज कुछ पंक्तियाँ लेकर आप सभी दोस्तों से मुखातिब हुआ हूँ |

वाह वाह ......

बड़ा ही सुखमय शब्द है -वाह वाह
हर इन्सान की जरुरत भी है
और मज़बूरी भी
क्योंकि हर इन्सान इस का आदी हो चुका है
अन्दर का खोखलापन इतना ज्यादा बढ़ गया है
की इसे टोनिक की तरह ले रहा है
बगैर इसके जीना मुश्किल हो गया है
सामजिक कार्य हो या धार्मिक
सब के पीछे लालच सिर्फ एक ........
कोई कवी अगर कोई कविता लिखता है
तो एवज में चाहता है सिर्फ .........
इसके लिए इन्सान कोई भी कीमत चुकाने को तैयार है
हर मकसद के पीछे मकसद है सिर्फ ..................
पर इस अम्रत रूपी शब्द का रहस्य
इतना भी असान नहीं
लाखों लोगों को ये गर्त में भी ले गया
क्योंकि वे इस के लायक नहीं थे
लोगों ने जूठी ही कर दी .........
क्रपया इस वाह वाह से बचें
अपना स्वम् निरिक्षण करें

बुधवार, 11 नवंबर 2009

वक्त और इन्सान

वक्त और इन्सान का रिश्ता है सदियों से
दोनों एक ही थाली के चट्टे बट्टे है
और दोनों ही एक दुसरे के गुनाहगार है
इन दोनों के बिच छतीस का भी आंकडा है
कभी इन्सान वक्त को दोषी कहता है तो कभी वक्त इन्सान को
ये मसला एक पहेली की तरह उलझकर रह गया है
आखिर इन्सान दोषी है या वक्त
चूँ कि की फैसला भी एक इन्सान को ही करना है
तो वक्त तो जीतने से रहा
पर मुझे लगता है कि वक्त के साथ अन्याय हो रहा है
करे कोई भरे कोंई
जब भी कुछ गलत होता है तो
इन्सान कहता है कि वक्त ही ख़राब था
या सब वक्त की बात है
किसी से न मिल सका तो एक ही बात - वक्त ही नहीं मिलता
इन्सान तो वक्त के हाथ की कठपुतली है बगैरा -२
जब भी कुछ अच्छा होता है
तो सारा श्रेय खुद ही ले लेता है
कि मैंने एसा कर लिया
अब तो आप समझ ही गए होंगे कि माजरा क्या है
दरसल इन्सान अपने बचाव के लिए बहाने ढूड लेता है
कुछ हूँ तो मै कुछ न कर पाया तो वक्त का दोष है
इन्सान वक्त का ढाल कि तरह इस्तमाल कर रहा है
इस इंसान को समझना इन्सान के बस कि बात नहीं
क्योंकि इसको बना के ईश्वर भी सोचता है आखिर क्या है ये इन्सान -पर
कोई इस वक्त की व्यथा तो सुनो
वक्त का सही वक्त पर इस्तमाल करो

शनिवार, 7 नवंबर 2009

जख्म ए दिल दर्द

जख्म ए दिल दर्द कुछ एसे रहे |
जिनको खुदसे ही हम कहते रहे ||

तुमभी कहते हो बड़े खामोश हो |
बात सब आँखों से हम कहते रहे ||

हमने ढूंडा था जिसे ता उम्र तक |
वो तो मेरे घर में ही बैठे रहे ||

यूँ तो कल मै भी हंसा हूँ देर तक |
अश्क आँखों से मगर बहते रहे ||

खेर छोडो जाने दो ज़दो ज़ह्त |
ये भी इक इल्जाम हम सहते रहे ||

गुरुवार, 5 नवंबर 2009

जीने के लिए मै कुछ ख्वाब बुन रहा हूँ |
अहसास बुन रहा हू वही प्यास बुन रहा हूँ ||

न जाने कौन खीच दे प्यार की इस डोर को |
अतिहात बुन रहा हू फरियाद बुन रहा हूँ ||

आज फिर गुम सुम सी है शहर की अवो हवा |
आसुओं की ओट से तूफान बुन रहा हूँ ||

सन्नाटो की गूंज में गुम है कही आवाजे |
भोर के एक गीत का में साज़ बुन रहा हूँ ||

गुम ना हों वादे वफ़ा इस भीड़ में |
अतीत के तिनकों से पहचान बुन रहा हूँ ||

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