सोमवार, 5 मई 2014

कागा तुम कितने अच्छे हो



कागा तुम कितने अच्छे हो
सुबह सुबह तुम
जल्दी जग कर
कोयल के
बच्चों से मिलकर
आजाते हो मेरे
आंगन की मुंडेर पे
और बगैर किसी
आग्रह विनय के
सुनाने लगते हो
अपना मधुर गीत
रोटी के एक टुकड़े
के लालच में
वो टुकड़ा जो मेरी माँ
शाम के खाने से
अपने हिस्से की
रोटी में से बचा कर 
मेरे लिए रख लेती है
कभी तुम मेरे पास आकार
बैठ जाते हो और कभी
दूर उड़ जाते हो
और कभी जबरदस्ती
मुझसे रोटी छीनने लगते हो
में तुम्हे लकड़ी लेकर
हँसता हुआ दौडता हूँ
कागा तुम कितने सच्चे हो
कागा तुम कितने अच्छे हो |

1 टिप्पणी:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

चपल, चुस्त कागा भी अब धीरे धीरे लुप्त हो रहे हैं ... अर्थपूर्ण रचना ...

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