मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

प्रिय पाठकों

आप सभी रहनुमाओ के लिए संजीदगी के साथ पेश है ये नज़म उम्मीद है अप सभी को पसंद आयेगी |


कभी किसी रोज़ आकार देखो

मेरे उस कमरे का आलम

सारा सामान बिखरा पड़ा है

और कॉफ़ी का वो कप जो

तुम्हारे दुप्पटे के झोके से

गिर कर टूट गया था

आज भी उस में से सोंधी सोंधी

सी खुशबू आती है

उस किताब के पन्ने

जिस पर तुम्हारी मखमली उँगलियों

शरारत कर रहीं थी

उस दिन से बदले नहीं है

और तुमने जो खिड़की खोल कर

शर्द हवा को आमंत्रण दिया था

तुम्हारी जुल्फों से उलझती

अटखेलियाँ करती हुई वो हवा

आज भी आ रही है

वो ख़त जो तुम लौटा गए थे

उस रोज मुझे

उड़ कर मेरे जिस्म से

चिपक जाते है

और तुम्हारी मजबूरियों की

कहानी सुनाते है

जो तुम जाते वक्त नहीं कह सके थे

कभी किसी रोज़ आकार देखो

मै कितना तन्हा हूँ ............|

4 टिप्‍पणियां:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

Bahut lajawab bimb le ke rachi rachna .. Lajawab ...

आशु ने कहा…

और कॉफ़ी का वो कप जो

तुम्हारे दुप्पटे के झोके से

गिर कर टूट गया था

आज भी उस में से सोंधी सोंधी

सी खुशबू आती है

पी सिंह जी , आप की रचना पढ़ कर बड़ा अच्छा लगा

sunanda ने कहा…

lovely psing....carry on

sunanda ने कहा…

lovely psing....carry on

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